टिहरी के तिलाड़ी काण्ड दिवस पर वन अधिकारों की उठी बात:
शहीदों को किया नमन:
88 वें तिलाड़ी शहीद दिवस पर टाउन हॉल देहरादून में उन महान क्रांतिकारियों को नमन किया गया जिन्होंने अपने प्राणों की बाजी समाज हित के लिए दी थी। 30 मई 1930 को किसानों की जल-जंगल और जमीन के इस आंदोलन का उत्तराखण्ड के इतिहास मैं अपना एक अलग स्थान है। शहिदो को नमन किया गया और वनों पर अधिकार के विषय मे विचारकों ने अपने अपने विचार रखे।
तिलाड़ी काण्ड:
टिहरी रियासत के रावईं क्षेत्र के तिलाड़ी का आंदोलन इतिहास का पहला आंदोलन है जिसमें जनता ने वन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर अपने हक-हकूकों के लिए सामूहिक तौर पर संघर्ष किया और इतिहास में अमर हो गए। तिलाड़ी का जन आंदोलन टिहरी राजा के आलीशान महल के निर्माण में हुई फिजूलखर्ची को वसूल करने के लिए बनाए गए काले वन कानूनों के विरोध में राजसत्ता के खिलाफ सीधी बगावत थी। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंतिम वर्षों में टिहरी के राजा ने उन सभी फसलों पर टैक्स लगा दिया था, जिनके ऊपरी सिरे पर फसल होती थी। जिससे बचने के लिए जनता ने ऐसी फसलों को बोना शुरू कर दिया, जिनके तने पर फसल हो जैसे मक्का, किंतु राजा ने इन पर भी टैक्स लगा दिया था। फिर जनता के ऐसी फसलें उगानी शुरू कर दी जो जमीन के अंदर पैदा होती थी जैसे आलू और पिंडालू। अंत में राजा ने हर प्रकार की उपज पर भारी टैक्स लगा दिया।

टिहरी के राजा नरेंद्र शाह की अय्याशियों का खर्च इससे भी पूरा ना हुआ, तब टिहरी के राजा ने जंगल में पशुओं के चरान-चुगान पर कर लगाया। इसका नाम का पूंछ कर यानि पूंछ वाले जानवरों का वन सीमा में घुसने पर टैक्स। साथ ही राजा के आदेश पर वन सीमा को निर्धारित करने वाल मुनारे को गांव की सीमा तक सटा दिया गया। जो एक तरह से टैक्स वसूल करने का तथा उत्पीड़न करने का तरीका था। इसके विरोध में रंवाई जौनपुर के किसानों ने टिहरी के राजा से मिलने का प्रयास किया। किंतु टिहरी राजदरबार से किसानों को यह कहकर भगा दिया गया कि अगर टैक्स नहीं दे सकते तो पशुओं को ढंगार में फेंक दो। मेहनतकश पशुपालक और कृषक समाज का यह एक बड़ा अपमान था, जिसके विरोध में कंसेरू गांव के दयाराम रंवाल्टा के नेतृत्व में पहले जनांदोलन का बिगुल बजा।
जब सभी किसान यमुनातट के रवाईं क्षेत्र के तिलाड़ी के मैदान में जनसभा के लिए एकत्रित हुए। जिसकी जानकारी टिहरी के राजा को मिल गई। आंदोलन का खत्म करने के लिए राजा ने तत्कालीन रियासत के वनाधिकारी को भेजा, साथ ही शाही फौज की एक टुकड़ी भी भेजी। शाही फौज ने शांतिपूर्ण जनसभा कर रहे निहत्थे किसानों और पशुपालकों पर गोलियां चला दी। अपने जान बचाने के लिए कई लोग यमुना नदी में कूद गए। कहते हैं उस दिन निहत्थे और निर्दोष लोगों के खून से यमुना का नीला पानी भी लाल हो गया था। जिंदा बचे लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। जिसमें से एक आंदोलनकारी को राड़ी के जंगल में जेल ले जाते हुए गोली मार दी गई। इस घटना के बाद सारी यमुना घाटी टिहरी के राजा के खिलाफ विद्रोह पर उतर आई। कई लोगों पर मुकदमें दर्ज हुए। जिसने राजा के खिलाफ बोला उसके घर की कुर्की कर दी गई। टिहरी के राजा ने कुछ ही अरसे में आंदोलन को पूरी तरह कुचल दिया।
यह आंदोलन टिहरी के राजा के अत्याचारों का प्रतीक बनकर इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। तिलाड़ी का वह मैदान हिमालय अब एक शहीद स्थल है। इस घटना को हिमालय का जलियांवाला भी कहा जाता है। 30 मई 1930को ही जंगलों पर अपने अधिकारों के लिए एकत्रित हुए किसानों को तीन तरफ से टिहरी के राजा के फौज ने घेर लिया। चौथी तरफ यमुना नदी थी। उस वक्त टिहरी रियासत के राजा नरेंद्र शाह थे। तिलाड़ी के मैदान में बिना किसी चेतावनी के राजा ने निर्दोष और निहत्थे ग्रामीणों को गोलियों से भून देने का आदेश दिया। जिसमें 379 लोग मारे गए थे और सैंकड़ों घायल हुए थे।
वनों पर अपने परम्परागत अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले तिलाड़ी काण्ड के शहीदों को नमन कार्यक्रम में वन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर परम्परागत अधिकारों के लिए चिंतन , संघर्ष और भावी रणनीति के लिए प्रथम सम्मेलन में किशोर उपाध्याय, गीता चंदोला, वीरेंद्र पैन्यूली, राजीव लोचन शाह, समर भंडारी, समीर रतूड़ी, सुशील सिंह, आदि ने विचार रखे और उत्तराखण्ड में वनों पर अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई पर सहमति जताई।